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वनारसीविलासः
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नरपतिमंडन नीति, पुरुषमंडन मनधीरन । पंडितमंडन विनय, तालसरमंडन नीरज ॥ कुलतियमंडन लान, वचनमंडन प्रसन्नमुख ।
मतिमंडन कवि धर्म, साधुमंडन समाधिसुख ॥ । भुनवलसमर्थ मंडन क्षमा, गृहपति मंडन विपुल धन । मंडन सिद्धान्त रुचि सन्त कहँ, कायामंडन लवन घन ॥१०॥
ज्ञानवन्त हठ गहै, निधन परिवार बढ़ावै । विधवा करै गुमान, धनी सेवक है धावै ॥ वृद्ध न समझै धर्म, नारि भर्ता अपमान ।
पंडित क्रिया विहीन, राय दुर्बुद्धि प्रमानै । कुलवंत पुरुष कुरुविधितजे, बंधु न मानै बंधुहित ।। सन्यासधार बन्न संग्रहै, ए जगमें मूरख विदित ॥ ११ ॥
इति श्रीनवरत्न ऋवित्त.
अथ अष्टप्रकारजिनपूजन लिख्यते.
दोहा। जलधारा चन्दन पुहुपै, अक्षत अरु नैवेद ।
दीप धूप फल अर्धयुत, जिनपूजा वसुमेद ॥ १ ॥ जल-मलिन वस्तु उज्ज्वल करै, यह खभाव जलमाहिं ।
जलसों जिनपद पूजतें, कृतकलङ्क मिट जाहिं ॥ २ ॥ १ लावण्यता. १ पुष्प. ३ किये हुए पाप.