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जैनग्रन्थरताकरे
वसन्ततिलका। मुग्धप्रतारणपरायणमुजिबीते ___ यत्पाटवं कपटलम्पटचित्तवृत्तेः। जीर्यत्युपप्लवमवश्यमिहाप्यकृत्वा नापथ्यभोजनमिवामयमायती तत् ॥ ५६ ॥
अमानक छन्द । ज्यों रोगी कर कुपथ; वढावै रोग तन । खादलंपटी भयो; कहै मुझ जनम धन ॥ त्यों कपटी कर कपट; मुगधको धन हरहि । करहि कुगतिको बंध; हरष मनमें धरहि ।। ५६ ॥
लोभाधिकार.
शार्दूलविक्रीदित। यदुर्गामटवीमटन्ति विकटं झामन्ति देशान्तरं
गहन्ते गहनं समुद्रमतनुक्लेशां कृषि कुर्वते । सेवन्ते कृपणं पति गजघटासंघहदुःसंचर सर्पन्ति प्रधनं धनान्धितधियस्तल्लोभविस्फार्जितम् ५७
मनहरण । सह घोर संकट समुद्रकी तरंगनिमः
कप चितभीत पंथ; गाहै वीच वनमैं ।। ठान कृषिकर्म जाम; शर्मको न लेश कहः ___ संकलेशरूप होय; जूझ मरै रनमैं ॥
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