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जैनग्रन्थरत्नाकरे
शशिविवेक निर्मल भयो हो, थिरता अमिय झकोर । फैली शक्ति सुचन्द्रिका हो, प्रमुदित नैन चकोर ॥ भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ ६ ॥ सुरति अग्निज्वाला जगी हो, समकित भानु अमन्द । हृदयकमल विकसित भयो हो, प्रगट सुजश मकरन्द ॥ भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ ७ ॥ दिढ कषाय हिमगिर गले हो, नदी निर्जरा जोर । धार धारणा बहचली हो, शिवसागर मुख ओर || भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ ८ ॥ वितथवात प्रभुता मिटी हो, जग्यो जथारथ काज । जंगल भूमि सुहावनी हो, नृप वसन्तके राज ॥
भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ ९ ॥ भवपरणति चार्चरि भई हो, अष्टकर्म बनजाल || अलख अमूरति आतमा हो, खेलै धर्म धमाल ॥
भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ १० ॥ नयपंकति चाचरि मिलि हो, ज्ञानध्यान डफताल । पिचकारी पद साधना हो, संवर भाव गुलाल ॥
भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ ११ ॥ राग विराम अलापिये हो, भावभगति शुभ तान । रीझ परम रसलीनता हो, दीने दश विधिदान || भला अध्यातमविन क्यों पाइये ॥ १२ ॥
१ पृथिवी ऐसा भी पाठ है.
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