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है। मोले वनारसीने जोगीकीवात सिर आंखोंसे मान ली और जोगीकी । शु सेवा सुश्रूषा करना शुरू कर दी । बथायोग्य भेटादि देके उसे खूब
संतुष्ट किया । दूसरे दिनसे ही सदाशिवको पूजन होने लगी। पूजअनके पश्चात् शिव शिव-कहकर एकसौआठ बार जप भी होने लगा। * पूजन और जपमें इतनी श्रद्धा हुई कि, पूजन जप किये बिना भोजन
नहीं होते थे । यदि किसी कारणवश किसी दिन पूजन नहीं की जा * सके, तो उसके प्रायश्चित्त स्वरूप लूखा भोजन करनेकी प्रतिज्ञा थी।
परन्तु ध्यान रहै, यह पूजन गुप्तरूपसे होती थी, कोई गृहकुटुम्बी जानता भी नहीं था । अनेक दिनों यह पूजन होती रही । संवत् १६६१ में मुकीम हीरानंदनी ओसवालने शिखरजीको संघ च. लाया, गांव २ नगर २ में संघकी पत्रिकायें भेज दी। हीरानंदजी
सलीम शाहजादेके जौहरी थे, अतः उस समय इनकी बड़ी प्रतिष्ठा अथी। खरगसेनजीके पास हीरानंदजीका विशेष पत्र आया, इसलिये ये गंगाके किनारे हीरानंदजीसे मिले और हीरानंदजीके आग्रहसे
वहीं के वहीं यात्राको चले गये ।जब यह समाचार बनारसीको लगे भी तब उन्होंने घर सूना पाकर चैनकी गुड्डी उड़ाना शुरू किया । पि
ताके जानेपर पूत निरंकुश हो गये, और नित्य धरमें कलह मचाने लगे । एक दिन बैठे २ एक सुबुद्धि सूझी कि, पार्श्वनाथकी यात्राको चलना चाहिये । मातासे आज्ञा मांगी, परन्तु जब उसने सुनी। अनसुनी कर दी, तब आपने दही, दूध, घी, चावल, चना, तैल, ताम्बूल और पुष्पादि पदायाँको छोड दिया, और प्रतिज्ञा की कि जब तक यात्रा नहीं करूंगा, तब तक ये पदार्थ भोगों नहीं लाऊंगा। इस प्रतिज्ञाको ६ महीने बीत गये। कार्तिकी पूर्णिमा आ गई। शैव लोग गंगास्नानको और जैनी पार्श्वनाथकी यात्राको चले,
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