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१०६ जैनग्रन्थरत्नाकरे
पृथिवी काय देह जिय धेरै । अपकायिकमय है अवतरै ॥ * अगनिकायमहिं तपत स्वभाय । वायुकायमहिं कहिये वाया॥१८॥ * वनसपती रूपी दुखमूल । लहि त्रसकाय धरै तन थूल ॥
घटकाया षटविधि अवतार । धरि धरि मरै अनन्ती बार १९ । धेरै कृष्णलेश्या परिणाम । नीललेश्यमय आतमराम ॥ फिर धारै लेश्या कापोत । सहज पीतलेश्यामय होत ॥ २० ॥
चेतन पदमलेक्ष्य परिवान । करै शुकललेश्या रसपान ॥ ३ इहिविधि घट लेश्या पद पाय । जगवासी शुभ अशुभ कमाय २१ ॥ उधर मिथ्यात्व झूठ सरदहै । वमि समकित सासादन गहै ॥ | सत्य असत्य मिश्र समकाल । सीधे समकित क्षायक चाल २२ उपसम बोध धरै बहुवार । वेदै वेदकरूप विचार ॥ घर घट समकित स्वांग विधान करै नृत्य जियजान अजान २३ ।। | सैनीरूप असैनीरूप । दुविधिस्वांग जिय धरै अनूपं ॥ पुरुषवेद तृण अगनि उछाह । त्रियवेदी कारीसादाह ॥२४॥ वनदवदाह नपुंसकवेद । नटै जीव घर रूप त्रिभेद ॥ थावरमाहिं इकेन्द्री होय । बस संखादिक इन्द्रिय दोय॥२५॥ पिपीलिकादिक इन्द्री तीनि । चौरिन्द्रिय जिय भ्रमरादीनि ॥ पंचेन्द्री देवादिक देह । सब वासठि मारगणा एह ॥ २६ ॥
जावत जिय मारगणारूप । तावत्काल बसै भवकूप ॥ अजब मारगणा मूल उछेद । तब शिव आपै आप अभेद॥२७॥
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