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१६० जैनग्रन्थरत्नाकरे ___अथ सोलह तिथि लिख्यते.
चौपाई। अपरिवा प्रथम कला घट जागी । परम प्रतीतिरीति रसपागी ॥ प्रतिपद परम प्रीति उपजावै । वहै प्रतिपदा नाम कहावै ॥२॥
दूज दुईधी दृष्टि पसारै । स्वपरविवेकधारणा धारै ॥ * दर्वित भावित दीसै दोई । द्वय नय मानत द्वितीया होई॥२॥ तीज त्रिकाल त्रिगुण परकासै । त्रिविधिरूप त्रिभुवन आभास तीनों शल्य उपाधि उछेदै । त्रिधा कर्मकी परिणति भेदै ॥३॥ चौथ चतुर्गतिको निरवारै । कर चकचूर चौकरी चारै ॥ चारों वेद समुझि घर आवै । तब सुअनंत चतुष्टय पावै ॥४॥ पांचै पंच सुचारित पालै । पंचज्ञानकी सुरति संभाले ॥ पांचों इन्द्रिय करै निरासा । तव पावै पंचमगति वासा ॥ ५॥ छठ छहकाय खांग धर सोवै ॥ छह रस मगन छ आकृति होवै॥ जब छहदरशनमें न अरूझै । तब छ दर्वसों न्यारो सूझै॥६॥ सातें सातों प्रकृति खिपावै । सप्तमंग नयस मन लावै ॥ अत्याग सात व्यसनविधि बेती । निर्भय रहै सात भयसेती ७ ॐ आ3 आठ महामद भबै । अष्टसिद्धिरतिसों नहिं रंजे ॥
अष्टकर्ममलमूल बहावै । अष्टगुणातम सिद्ध कहावै ॥ ८ ॥ नौमी नवरसमें रस बेवै । तो समकित धर नवपद सवै ॥ करै भक्तिविधि नव परकारा । निरखै नवतत्त्वनसों न्यारा ॥९॥
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