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बनारसीविलासः ७६ •rrammmmmmmmmmmimrainionom.rrmer . अनुभवज्ञानते निदान आनमान छूट्यो,
सरधानवान वान छहों द्रव्यकरसे । करम उपाधि रोग लोग जोग भोग राते,
मोगी त्रिया योगी करामातहूको तरसे ॥ दुर्गति विषाद न उछाह सुर भौनवास,
समता मुक्षिति आतमीफ मेघ वरसे। वानारसीदासजके वदन रसन रस,
ऐसे रसरसिया ते अरसको परसें ॥ ६॥ आवरण समल विमल भयो ताके तुले,
मोह आदि हने काहु काल गुनकसिया । लीन भयो लवलागी मगन विभावत्यागी,
ज्योतिके उदोत होत निज गुण पसिया ॥ वानारसीदास निज आतम प्रकाश भये,
आवे ते न नाहिं एक ऐसे वासवसिया।। अरस परस दस आदि ही अनन्त जन्तु,
सुरससवादराचे सोई साँचो रसिया ॥ ७ ॥ इस ही रसके सवादी भये ते तो सुनो,
तीर्थकरचक्रवर्ति शैली अध्यातमकी। वल वासुदेव प्रति वासुदेव विद्याधर,
चारणमनिन्द्र इन्द्र छेदी बुद्धि भ्रमकी ॥ १ खभाव. २ आकर्षण कर
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