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७२ जैनग्रन्थरलाकरे
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अठ्ठावीस लवधिक विविध सधैया साधु,
सिद्धिगति भये कीन्हीं सुगम अगमकी । वानारसीदास ऐसी अमीकुंडपिंड पायो,
तहांलों पहुंच कालक्रमकी न जमकी ॥ ८॥ इतर निगोदमें विभाव ताके बहुरूप,
तामें हू खभाव ताको एक अंश आवै है। वहै अंश तेजपुंज वादर अगनि जैसे,
एकतै अनेक रस रसना बढ़ावै है ।। आर्गे जोर वढ्यो प्राण चक्षु श्रोत्र नरदेह,
देह देही मिन्न दीखे भिन्नता ही भाव है। वानारसीदास निवज्ञानको प्रकाश भयो,
शुद्धतामें वास किये सिद्धपद पावै है ॥ ९ ॥ उदै भयो भानु कोऊ पंथी उठ्यो पंथकाज,
कहै नैनतेज थोरो दीप कर चहिये । कोऊ कोटीध्वज नृप छत्रछांह पुरतज,
ताहि हौंस भई जाय ग्रामवास रहिये ॥ मंगल प्रचंड तज काहू ऐसी इच्छा भई,
एक खर निज असवारी काज चहिये । बानारसीदास जिनवचन प्रकाश सुन,
और वैन सुन्यो चाहै तासों ऐसी कहिये ॥१०॥
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