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जैनग्रन्थरत्नाकरे mammanmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
तापर अशोक वृक्ष छत्रध्वज चामर सो, ___ पवन अगनि जल से एक वास है। सारीके अकार तामें रुद्र रूप चितवत,
महातम महावृत तामें बहु भास है। ऐसो ओंकारको अमूल चूल मूलरस,
बानारसीदासजूके बदन विलास है ॥३॥ सिद्धरूप शिवरूप भेप अवभेषरूप,
नररूप न्यायरूप विषिरूप बातमा । गुणरूप ज्ञानरूप ज्ञायक गंभीररूप,
भोगरूप मोगीरूप सरस सुहातमा ॥ एकरूप आदिरूप अगम अनादिरूप,
असंख्य अनंतरूप जातिरूप जातमा । वानारसीदास द्रव्यपूजा व्यवहाररूप,
शुद्धता स्वभावरूप यहै शुद्ध आतमा ॥ ४॥ धुंधवाउ हृदै भयो शुद्धता विसरि गयो,
परगुणरंग रह्यो पर ही को रुखिया । निजनिधि निकट विकट भई नैन विन,
क्षणको सुखी तामें क्षणकमें दुखिया ।। समकित जल विना ऋषित अनादि काल,
विषय कषायवहि अरणमें धुखिया। वानारसीदास जिन रीति विपरीति जाके,
मेरे जाने ते तो नर मूढनमें मुखिया ॥ ५॥
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