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अथ ज्ञानवावनी.
घनाक्षरी। ओंकार शबद विशद याके उभयरूप,
एक आतमीक भाव एक पुद्गलको । शुद्धता स्वभावलिये उठ्यो राय चिदानंद, __ अशुद्ध विभाव लै प्रभाव जड़वलको ॥ त्रिगुण त्रिकाल तातै व्यय ध्रुव उतपात,
ज्ञाताको सुहात वात नहीं लाग खलको । वानारसीदासजूके हृदय ओंकारवास,
जैसो परकाश शशि पक्षके शुकलको ॥१॥ निरमल ज्ञानके प्रकार पंच नरलोक,
तामें श्रुतज्ञान परधान कर पायो है। ताके मूल दोय रूप अक्षर अनक्षरमें,
अनक्षर अन पिंड सैनमें बतायो है ॥ बावन वरण जाके असंख्यात सन्निपात,
तिनिमें नृप ओंकार सज्जनसुहायो है। वानारसी दास अंग द्वादश विचार यामें,
ऐसे ओंकार कंठ पाठ तोहि आयो है ॥२॥ महामंत्र गायत्री के मुख ब्रह्मरूप मंड्यो,
आतम प्रदेश कोई परम प्रकाश है।
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