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बनारसीविलासः
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रसातल तल पंच गोलक अनन्त जंतुः
तामें दोऊ राशि अन्तरहित खरूप है। कटुक मधुर जौलों अगनित भिन्नताई
चिक्कणताभाव एक जैसे तेलरूप है । जैसे कोऊ जात अंध चौइन्द्री न कहियत,
द्रव्यको विचार मूढभावको निरूप है। वानारसीदास प्रभु वीर जिन ऐसो करो,
आतम अभव्य भैया सोऊ सिद्धरूप है ॥ ४६ ॥ लक्षकोट जोरिजोरि कंचन अचार कियो, ___ करता मैं याको ये तो कर मेरी शोभ को ।
धामधन भरो मेरे और तो न काम कछु, ___सुख विसराम सो न पावें कहूं थोभको ॥ ऐसो वलवंत देख मोह नृप खुशी भयो,
सैनापति थाप्यो जैसे अहंभार मोमको । वानारसीदास ज्ञाता ज्ञानमें विचार देख्यो,
लोगनको लोभ लाग्यो लागे लोग लोभकोट बावनवरण ये ही पढ़त वरण चारि,
काहू पढ़े ज्ञान पढे काहू दुख द्वंदजू । वरण भंडार पंच वरण रतनसार,
भौर ही भंडार भाववरण मुछेदजू॥
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