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६ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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वानारसीदास ज्ञाता भगवानभेद पायो,
भयो है उछाह तेरे वचन कहावमें। भेषधार कहै भैया भेषहीमें भगवान,
भेषमें न भगवान भगवान भावमें ॥ १३ ॥ मोक्ष चलिवेको पंथ भूले पंथ पथिक ज्यों,
पंथबलहीन ताहि मुखरथ सारसी । सहजसमाधि जोग साधिवेको रंगभूमि,
परम अगम पद पढिवेको पारसी ॥ भवसिन्धु तारिवेको शबद धेरै है पोत,
ज्ञानघाट पाये श्रुतलंगर लैझारसी। समकित नैननिको याके बैन अंजनसे, __ आतमा निहारिवेको आरसी बनारसी॥१४॥ जिनवाणी दुग्धमाहिं विजया सुमतिडार,
निजखाद कंदवृन्द चहलपहलमें । विवेक विचार उपचार ए कसंभो कीन्हों,
मिथ्यासोफी मिटि गये ज्ञानकी गहलमें ॥ शीरनी शुकलध्यान अनहद नाद तान,
गान गुणमान करै सुजस सहलमें। वानारसीदास मध्यनायक सभासमूह,
अध्यातमशैली चली मोक्षके महलमें ॥ ४५ ॥ १ मिथ्यात्वरूपी नशे.
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