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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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प्रकृति असाता नीचकुल, नरकआयु गति दोय ।
पशु नारकि इन दुहुनकी, आनुपूर्वी जोय ॥ ४० ॥ चार जाति पंचेन्द्री विना । पंचसंहनन प्रथम न गिना॥ ॐ समचतुरसविन पंचअकार । वर्णादिक विंशति परकार ||११|| * बुरी चाल थावर उपघात । सूक्षम साधारण विख्यात ॥ अनादेय अपर्यापत दशा । दुर्भग दुस्वर अशुभ अपजशा ४२ अथिरसमेत एकसो वान ! ए सब पापप्रकृति परवान ॥ केती बंघ उदय केतीक । तिनकी बात कहों अब टीक||१३॥
दोहा। चारवंध वरणादि, वाकी सोलह नाहि । एक वैधमिथ्यातमें, द्वै गर्भित इसमाहिं ॥ १४ ॥ तनबंधन संघातकी, प्रकृति पंचदश जान । पंच बंध दश बंध विन, ये अठ्ठाइस वान ॥ १५ ॥ अट्ठाइसको बंध नहि, बंध एकसोवीस || इनमें दोय बढाइये, होहिं उदयवावीस ॥ ४६॥
चौपाई। बंध उदय विशेष यह बात । एक मिथ्यात तीन मिथ्यात ॥ एई दोय अधिक परनई । प्रकृति एकसवाविस भई ॥ १७॥ अब विपाक बरनों विधि चार । पुद्गल जीव क्षेत्र भव धार ॥ जे पुद्गलविपाककी वान । ते वासठविधि कहों वखान ॥४८॥
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