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उत्थानिका ।
वाग्देवी स्त्रियोंके नखशिख, तथा छल कपटोंकी प्रशंसामें ही उलझी रहती है। अधिक हुआ तो राधिकारसिकेशकी शक्तिमें दौड़ती है, परन्तु इस भक्तिके व्याजसे यथार्थम अपनी विषयवासनाही पुष्ट की जाती है और भक्तिका यथार्थ तत्त्व समझने में उनकी बुद्धि कुंठित रहती है। हम यह नहीं कहते कि, श्रृंगाररसन कविता करनी ही न चाहिये, नहीं! अंगारके बिना साहित्य फीका रहता है, इस लिये भंगार एक आवश्यक रस है; परन्तु प्रत्येक विपयके परिमाणकी नीमा होती है । सीमाका उलंघन करना ही
दोपास्पद होता है । सारांश वह है कि, अब भंगाररस बहुत न हो चुका कविजनाको अन्य विषयोंकी ओर भी ध्यान देना चाहिये । परमार्थदृष्टिसे शान्त और करुणा ये दो रस परमोचन है,
और इन्ही रसॉस परिपूर्ण अन्य भाषा (हिन्दी) साहित्यमें बहुत बोटे दिखाई देते हैं। इन रसासे कविका आत्मा सुख और शांति दोनों से प्राप्त कर सका है।
साहित्य और धर्मस घनिष्ट सम्बन्ध है, इस लिये प्रत्येक भाषासाहित्यके धोकी अपेक्षा अनेक भेद हो राक्त हैं। जिस कविका जो धर्म होगा, उसकी कविता उसी धर्मक साहित्यमें गिनी जावेगी । परन्तु अन्योंके पालोचनसे जाना जाता है, कि प्राचीन समयके विद्वानों में धर्मोकी अनेकता होनेपर भी साहित्यकी अनेकता नहीं थी। उस समयका धर्मभेद विनोदरूप था, द्वेपरूप नहीं था। इस लिये प्रत्येक विद्वान् यावद्धमाके अन्धोंका परिशीलन निष्पक्षदृष्टिसे करता था। कविगण धर्मभेदके कारण किसी काव्यका आस्वादन करना नहीं छोड देते थे, बल्कि आत्नादन करके यथासमय उनकी प्रशंसा करते थे। वे जानते थे कि सा
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