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नग्रन्थरनाकरे
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हित्य कविक धर्मके अनुकूल विषय प्रतिपादन करता है, परन्तु मिमीसे यह नहीं कहता कि, तुम्हें हमारा धर्म अंगीकार करना. ही पड़ेगा । महाकवि याणभट्टने कहा है
पदबन्धोज्वलो हारी कृतवर्णक्रमस्थितिः।
भट्टारहरिचन्द्रस्य गद्यबन्धो नृपायते ॥ इसमें जिस महाकविके गद्यवन्ध ग्रन्थको काल्योका राजा म बतलाया है, वे भट्टार हरिश्चन्द्र जैन थे।जल्हणकी सूफिमुक्तावलीम महाकवि श्रीधनंजयकी प्रशंसा में कहा है
द्विसन्धाने निपुणतां स तां चक्रे धनंजयः ।
यया जातं फलं तस्य सतां चक्रे धनं जयः ॥ द्विसंधानमहाकाव्यके प्रणेता परम जैन धनंजयका नाम किसने न सुना होगा । ध्वन्यालोकके कर्ता आनन्दवर्धन और महरचरित महाकाव्यके कर्ता रत्नाकरने भी धनंजय की स्तुति
की है। इसी प्रकार नहाकवि वाग्भट्ट जो जैन थे, उन्होंने कालिदासकी प्रशंसामें कहा है
नव्यनन्यक्रमासायानुसणं यस्य सूक्तयः ।
प्रभवन्ति प्रमोदाय कालिदासः स सत्कविः ॥ परमभहारक श्रीसोमदेवसरिने यशस्तिलकचम्पूके दूसरे आश्वासमै " सुकविकाव्यकथाविनोददोहनमाघ" पद देके माघ महाकविकी प्रशंसा की है।
इत्यादि और भी अनेक उदाहरणोंसे जाना जाता है कि, प्राचीनकालमें एक दूसरेके अन्योंके पठनपाठनकी पद्धति बहुलतासे थी । परन्तु अब वह समय बहुत पीछे पड़ गया
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