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वनारसीविलासः
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नवमा ठगं आज्ञान अगाघ । जासु उदय उपजै अपराध || जो अपराध पाप है सोय | जहां पाप तहां धर्म न होय १२ दशम काठिया भ्रम विच्छेप । भ्रमसों अशुभ करमको लेप || अशुभ कर्म दुरमतिकी खानि । दुरमति करै धर्मकी हानि १३ एकादशम काठिया नींद | नासु उदय जिय वस्तु न वीं ॥ मन बच काय होय जड़रूप । वूड़े धर्म कर्मघनकूप ॥१४॥ उग द्वादशम अष्टमद् भार | जामें अकररोग अधिकार || अकररोग अरु विनयविरोध | जह अविनय तहँ धर्मनिरोध १५ तेरम चरम काठिया मोह | जो विवेकसों करै विछोह || अविवेकी मानुष तिरजंच । धर्मधारणा घरै न रंच ॥ १६ ॥
येही तेरह करम ठग | लेहिं रतन त्रय छीन ॥ यातें संसारी दशा । कहिये तेरह तीन ॥ १७ ॥
इति त्रयोदश काठिया.
अथ अध्यातम गीत लिख्यते.
राग गौरी.
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मेरा मनका प्यारा जो मिलै । मेरा सहज सनेही जो मिलै ॥टेक॥ अवघि अजोध्या आतम राम । सीता सुमति करै परणांम ॥ मेरा मनका प्यारा जो मिलै, मेरा सहन० ॥ १ ॥ उपज्यो कंत मिलनको चाय । समता सखीसों कहै इसभाव || मेरा मनका प्यारा जो मिलै, मेरा० ॥ २ ॥