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त्यों यह तेरह काठिया, करहिं धर्मकी हानि। तातें कछु इनकी कथा, कहहुं विशेष वखानि ॥ २ ॥ जूआ आलस शोक भय, कुकथा कौतुक कोहैं।
कृपणबुद्धि अज्ञानता, भ्रम निद्रा मंदै मोहैं ॥ ३ ॥ ॐ प्रथम काठिया जुआ जान । जामें पंच वस्तुकी हान।
प्रभुता हटै घटै शुभ कर्म । मिटै सुनश विनशै धनधर्म ॥४॥ द्वितिय काठिया आलसभाव । जासु उदय नाशै विवसाय ॥ बाहिर शिथिल होहिं सब अंग । अंतर धर्मवासना भंग ॥५॥
ठग तीसरो शोक संताप ! जासु उदय जिय करै विलाप ।। 3 सूतक पातक जिहि पर होय । धर्मक्रिया तहँ रहै न कोय।।६।। अभय चतुर्थ काठिया बखान । जाके उदय होय वलहान ॥ * उर कप नहिं फुरै उपाय । तब सुधर्म उद्यम मिट जाय ॥७॥
ठग पंचम कुकथा बकवाद । मिथ्यापाठ तथा ध्वनिनाद | जवलों जीव मगन इसमाहिं । तबलों धर्म वासना नाहिं॥८॥ कौतूहल छडम काठिया । भ्रमविलाससों हरष हिया ॥ मृषा वस्तु निरखै धर ध्यान । विनशि जाय सत्यारथ ज्ञाना। कोप काठिया है सातमा । अनि समान जहां आतमा | * आप न दाह औरको दहै । तहां धर्मरुचि रंच न रहै ॥१०॥
कृपणबुद्धि अष्टम वटपार । जामें प्रगट लोभ अधिकार | लोभ माहिं ममता परकाश । ममता करै धर्मको नाश ॥११॥
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