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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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बनारसीदासजीकी यय इस समय १४ वर्ष की हो चुकी थी, बाल्यकाल निकल गया था, और युवावस्थाका प्रारंग था। इस समय पं० देवदत्तजीके पास पढना ही उनका एक मात्र कार्य था। धनंजयनाममालादि कई अन्य वे पढ़ चुके थे। यशापढी नाममाला शतदोय । और अनेकारय अवलोय । ज्योतिष अलंकार लघुकोक । खंडस्फुट शत चार श्लोक ॥
यायनकाल। युवावस्थाका प्रारंम बहुत बुरा होता है, अनेक लोग इस अवस्थाम शरीरके मदसे उन्मत्त होकर कुलकी प्रतिष्ठा संपति संतति आदि मत्र का चौका लगा देते हैं । इस अवस्थामें गुरुजनोंका प्रयत्न मात्र रक्षाकर सक्ता है, अन्यथा कुशल नहीं होती। हमारे चरित्रनायक अपने माता पिताके इकलोत लडके थे, इमलिये माता-पिता और दादीका उनपर अतिशय प्रेम होना स्वाभाविक है । को अमाधारण प्रेमके कारण गुरुजनोंका पुत्रपर जितना भय होना चाहिय, उतना बनारसीदासजीको नहीं था। फिर क्या था?
तजि कुलफान लोशकी लाज ।
भयो बनारसि आसियाज ॥१७॥ औरकर यासिखी धरित न धीर।
दरदयन्द ज्या शेख फकीर इकटक देख ध्यानसों धरै।
पिता आपुनेको धन हरै ॥ १७ ॥ हैं जिसपर शाहसलीम शिकारका बहाना करके गया था, फिर नूरमयेगके हाजिरदोनपर लालावेगको यहां रख पाया होगा।
शुद्ध शब्द इसकमान है।
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