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कविवरवनारसीदासः।
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से यहां खुशामदी और स्वार्थी लोग जो नीचे नहीं बैठा करते हैं,
इनके कान मरा करते थे कि, बादशाह तो दक्खनके लेने में लगे हैं और वह मुल्क एकाएकी हाथ आनेवाला नहीं है; और वे भी वगैर लिये
पीछे आनेवाले नहीं है। इसलिये हजरत जो यहाँसे लौटकर आगरेसे * परेके आवाद और उपजाऊ परगनोंको ले ले, तो बडे फायदेकी बात हो।
वंगालेका फिसाद भी कि जिसकी खबरें आ रही है और जो वगैरजाने राजा मानसिंहके मिटनेवाला नहीं है, जल्द दूर हो जायगा। से यह बात राजामानसिंहके भी मतलवकी थी, क्योंकि उसने वंगा
लेकी रखवालीका जिम्मा ले रक्खा था, इस वास्ते उसने भी हमें हां मिलाकर लौट चलनेकी सलाह दी।
शाहसलीम इन बातोसे रानाकी मुहिम अधूरी छोडकर इलाहाबाद: को लोट गये। जब आगरेमें पहुंचे तो वहांका किलेदार कुलीचखां पेशवाईने आया, उस वक्त लोगों ने बहुत कहा कि, इसको पकडलेनेसे आगरेका किला जो खजानोंसे भरा हुआ है, सहजमें ही हाथ आता है, मगर इन्होंने कुबूल न करके उसको रुखसत कर दिया और यमुनासे उतरकर इलाहावासका रस्ता लिया । इनकी दादी हौदमें बैठकर इनको इस इरादेसे मना करनेके लिये किलेसे उतरी थी कि, ये नावमें बैठकर जलदीसे चल दिये और वे नाराज होकर लोट आई।
१ सफर सन् १००९ (द्वि० सावन सुदी ३ संवत् १६५५) को शाहसलीम इलाहावादके किलेमें पहुचे और आगरेसे इधरके बहुतसे परगने लेकर अपने नोकराको जागीरमें दे दिये । विहारका सूवा कुतबुद्दीनखांको दिया । जौनपुरकी सरकार लालावेगको, और कालपांकी सरकार नसीमबहादुरको दी । घनसूर दीवानने तीन लाख रुपयेका खजाना विहारके खालिसेमेसे तहसील करके जमा किया।
था, वह मी उससे ले लिया। 1 इससे जाना जाता है कि शाहसलीमने जो लालाबेगको जोनपुर दिया था, नूरमसुलतान लालावेगको लेने नहीं देता होगा;
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