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जैनग्रन्थरलाकरे
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दोहा। ये ही चारकषाय मल, अनुक्रम सूक्षम थूल । 1. चारों कीजे चौगुने, चन्द्रकला समतूल ॥ २५ ॥
अनन्तानुबंधीय कषाय । जाके उदय न समकित थाय ॥ अपत्याख्यानिया उदोत । पंचमगुणथानक नहिं होत॥२६॥ प्रत्याख्यान कहावै सोय । जहां सर्वसंयम नहिं होय ॥ 1 सो संज्वलन नाम गुरु भने । यथाख्यातचारित जो हनै २७ क्रोध मान माया अरु लोम । चारों चारचारविधि शोभ ॥ ए कषाय सोलह दुखधाम । अब नव नोकपायके नाम ॥२८॥ रागद्वेषकी हांसी जोय । हास्यकषाय कहावै सोय ॥ . सुखमें मगन होय जिय जहां । रतिकषाय रस वरसै तहा२९ ।। जहां जीवको कछु न सुहाय । तहां मानिये अरति कपाय ॥
थरहर कंपै आतमराम । जामहिं सो कपाय भय नाम ॥३०॥ 1 रुदन विलाप वियोग दुख, जहां होय सो सोग। * जहां ग्लानि मन ऊपजै, सो दुर्गछा रोग ॥ ३१ ॥ नगर दाह सम परगट दीस । गुप्त पैजावा अग्नि सरीस ॥ महा कलुषता धरें संदीव । वेद नपुंसकधारी जीव ॥ ३२ ॥
अब वरनों तियवेदकी, रचना सुनि गुरु भाष । कारीसाकीसी अगनि, गर्मित छल अभिलाष ॥ ३३ ॥
LALAMARJAWAHAMARAL
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१ समतुल्य बरावर. २ होय 'गुर्जर'. ३ अवा ईंट व खपरोंका.