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वनारसीविलासः ज्यों भारीसाकी अगनि, धुआँ न परगट होय।। मुलग सुलग अन्तर दह, रहे निरन्तर सोय ॥ ३४ ॥ त्यो वनिताबेदी पुरुष, बोले मोटे बोल । वाहिर सब जग बश कर, भीतर कपटकलोल ॥ ३५ ॥ कपट लटपसों आपको, करै कुगतिके बंध । पाप पंथ उपदेश दे, कर औरको अंध ॥ ३६॥ । आपा हत औरन हत, वनितावेदी सोय । अब लक्षण ताके कहो, पुरुष वेद जो होय ॥ ३७ ॥ ज्यों तृण पूलाकी अगनि, दीखै शिखा उतंग ।।
अल्परूप आलाप घर, अल्पकालमें मंग ॥ ३८ ॥ तसे पुरुषवेद धर जीव । धर्म कर्मम रहे सदीय ॥ महानगन तप संजम माहिं । तन ताचे तनको दुख नाहिं ॥ ३९॥ चित उदार उद्धत परिणाम । पुरुषवेद घर आतमराम ॥ तीन मिथ्यात पचीस कपाय । अट्ठाईस प्रकृति समुदाय ॥ ४० ॥ अब सुन आयु चार परकार । नर पशु देव नरक थिति धार ॥ मानुष आयु उदय नर भोग । लह तिरजंच आयु पशु जोग ॥११॥ * देव आयु सुरवर विन्यात । नरक आयुसो नरक निपात ।।
वरनी आयुक्रर्मकी वान । नामकर्म अब कहीं वसान ॥ ४२ ॥ पिंड प्रकृति चौदह परकार । अट्टाईम अपिंड विस्तार ॥ पिंडभेद पंसद परशन्न । मिलि तिराणवे होहि ममन्न ॥ १३॥
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