________________
.vom.x.mmmmmmmmm
utttitutituttitutikathaxkrkut.
t
t.kuttakuttitutikotutatutikattatrketikottkuketituttitutikikattakikattotttt.katural
*२२२ जैनग्रन्थरत्नाकरे ॐनर काहे करौ ? । छिन मात्र भी बन्धपद्धतिविपै मगन होय नाहीं सो ज्ञाता अपनो स्वरूप विचारै अनुभवै ध्यावै गावै । श्रवन करै नवधामक्ति तप क्रिया अपने शुद्धस्वरूपके सन्मुख । होइकरि करै । यह ज्ञाताको आचार, याहीको नाम मिश्रव्यवहार ॥ अब हेयज्ञेयउपादेयरूप ज्ञाताकी चालताकोविचारलिख्यते
हेय-त्यागरूप तौ अपने द्रव्यकी अशुद्धता, ज्ञेय-विचाररूप अन्यषद्रव्यको स्वरूप, उपादेय—आचरन रूप अपने द्रव्यकी अशुद्धता, ताको व्यौरी-गुणस्थानक प्रमान हेयज्ञेयउपादेयरूप शक्ति ज्ञाताकी होइ । ज्यों ज्यों ज्ञाताकी हेय है ज्ञेयउपादेयरूप शक्ति वर्द्धमान होय त्यों त्यों गुनस्थानककी बढवारी कही है. गुणस्थानकावान ज्ञान गुणस्थानक प्रमान क्रिया । तामैं विशेष इतनौ जु एक गुणस्थानकवर्ती अनेक जीव होहिं तौ अनेक रूपको ज्ञान कहिए, अनेक रूपकी क्रिया कहिए । भिन्न भिन्नसत्ताके प्रवानकरि एकता मिलै नाहीं । एक एक जीव द्रव्यविषै अन्य अन्य रूप उदी
क भाव होंहि तिन उदीकभावानुसारी ज्ञानकी अन्य अन्यता है १ जाननी । परंतु विशेष इतनौ जु कोऊ जातिको ज्ञान ऐसो न होइ जु परसचावलंवनशीली होइकरि मोक्षमार्ग साक्षात् कहै ।।
काहेत अवस्थाप्रवान परसत्तावलंबक है । ज्ञानको परसमतावलंबी परमार्थता न कहै । जो ज्ञान होय सो स्वसत्तावलंबन है
titut.kettitutntuirtutitutitut.kutitutituteketstakutte