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बनारसीविलासः २२३ शीली होइ ताको नाउ ज्ञान । ता ज्ञानकी सहकारभूत निमि
तरूप नाना प्रकार के उदीकभाव होंहि । तिन्ह उदीकभावसुनको ज्ञाता तमासगीर । न कर्ता न भोक्का न अवलंची तातें में कोल यों कहै कि या भांतिके उदीकभाव होहि सर्वथा तो फलानो गुनस्थानक कहिये सो झूठो । तिनि द्रव्यको स्वरूप सर्वथा प्रकार जान्यौ नाहीं । काहेत यातें जु और गुनस्थानक । निकी कौन वात चलावै केवलीके भी उदीकभावनिकी नानाम त्वता जाननी । केवलीके मी उदीकभाव एकसे होय नाहीं।।
काह केवलीको दंड कपाटरूप क्रिया उदै होय काहू केवली को । नाहीं । तो केवलीविषै भी उदैकी नानात्वता है तो और गुनस्थान । ककी कौन वात चलावै। तातै उदीक भावनि के भरोसे ज्ञान नाही अज्ञान स्वशक्तिप्रवान है । स्वपरप्रकाशक नानकी शक्ति ज्ञायक ॐ प्रमान ज्ञान स्वरूपाचरनरूप चारित्र यथा अनुभव प्रमान यह
ज्ञाताको सामर्थ्यपनौ। इन बातनको व्यारो कहातांई लिखिये कहां । ॐ ताई कहिए। बचनातीत इन्द्रियातीत ज्ञानातीत, तातै यह विचार बहुत कहा लिखहिं । जो ज्ञाता होगो सो थोरी ही लिख्यो । बहुतकरि समुझेगो को अज्ञानी होयगो सो यह चिठी सुनैगो । सही परन्तु समुझेगा नहीं यह यचनिका यथाका यथा । मुमतिप्रधान केवलिवचनानुसारी है। जो याहिगुणैगो समुझे गो सरदहगो ताहि कल्याणकारी है भाग्यप्रमाण ।
इति परमार्थवश्वनिका.
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