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४६ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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परम धरम वन दहै; दुरित अंबर गति धारहि ।। कुयश धूम उदगरे, भूरि भय भस्म विथारहि || दुख फलंग फुकरे तरल तृष्णा फल काहहि । धन ईंधन आगम; संजोग दिन दिन अति वादहि ॥ लहलहै लोभ पावक प्रबल; पवन मोह उद्धत वहै ।। दज्झहि उदारता आदि बहुः गुण पतंग कँवरा है।।
शादलविक्रीडित । जातः कल्पतरुः पुरः सुरगवी नेपां प्रविष्टा गृह
चिन्तारत्नमुपस्थितं करतले प्राप्तो निधिः संनिधिम् । विश्वं वश्यमवश्यमेव सुलभाः स्वर्गापवर्गनियो ये संतोपमशेपदोपदहनध्वंसाम्बुदं विभ्रते ॥३०॥
(३१ मात्रा) संवया। विलसै कामधेनु ताके घरपूरै कल्पवृक्ष मुखपोप । अखय भंडार भरै चिंतामणि तिनको सुलभ सुरग औ मोष ॥ ते नर खवश करें त्रिभुवनको; तिनसों विमुख रहै दुख दोप * सबै निधान सदा ताके ढिग; जिनके हृदय वसत संतोष ॥६॥
सज्जनाधिकार.
शिखरिणी। वरं क्षिप्तः पाणिः कुपितफणिनो वत्रकुहरे ___ वरं झम्पापातो ज्वलदलनकुण्डे विरचितः । वरं प्रासप्रान्तः सपदि जठरान्तर्विनिहितो
न जन्यं दौर्जन्यं तदपि विपदा सम्म विदुपा॥६॥ जिERY
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