________________
www
वनारसीविलासः २४१ कौन करै निरचार, चेतन० ॥ १॥ जैसे आग पपान काठमें । लखिय न परत लगार । मदिरापान करत मतवारो, ताहि नकळू * विचार, चेतन० ॥ २ ॥ ज्यों गजराज पखार आप तन, आपहि डारत छार । आप हि उगलि पाटको कीरा, तनहिं लपेटत तार, चेतन० ॥ ३ ॥ सहन कबूतर लोटनको सो, खु
लैन पेच अपार । और उपाय न वनै 'वनारसि' सुमरन भॐ जन अघार, चेतन० ॥ ४ ॥
Faktrikekat.kakakaktitutkuketiktatutotastet.kettrkut.ki.nx.kettek.kotkot.ket-ttitute
राग सारंग। * दुविधा कब जै है या मनकी दु० । कव निजनाथ निरंजन
समिरौं, तज सेवा जन जनकी, दुविधा० ॥ १ ॥ कव रुचिसौं पी हगचातक, वृंद अखयपद घनकी । कब शुभध्यान, घरौं समता गहि, करूं न ममता तनकी, दुविधा० ॥ २ ॥ ॐकत्र घट अंतर रहै निरन्तर, दिढता सुगुरु वचनंकी । कब
सुख लहौं भेद परमारथ, मिटै धारना धनकी, दुविधा०॥ ३॥ कब घर छाँड़ होहुं एकाकी, लिये लालसा बनकी । ऐसी दशा होय कब मेरी, हौं वलिवलि वा छनकी, दुविधा० ॥ ४ ॥
(१४)
राग सारंग । हम बैठे अपनी मौनसौं । दिन दशके महिमान जगत जन ३ १ रेशमका कीड़ा गलेके नीचेसे तार निकाल कर उससे अपने
शरीरके चारों ओर कोशा वनाकर आप यन्द हो जाता है ।
Pattitutkukkuttt.ttitutetitukutkukkukkukekat.kaktituttituttituttitutkukkuttakat