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नया
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३२२० जैनग्रन्थरत्नाकरे । अंग एकान्तपनौ साधिकै मोक्षमार्ग दिखावै अध्यात्म अगको व्यवहार न जानै यह सूढदृष्टीको खभाव, वाहिं याही भांति सूझै काहेत!-याते-जुआगम अंग वाह्यक्रियारूप प्रत्यक्ष प्रमाण है ताको खरूप साधिवो सुगम । ता बाह्यक्रिया । करतौ संतौ आपकू मूढ जीव मोक्षको अधिकारी मार्ने, अअन्तरगर्मित जो अध्यात्मरूप क्रिया सो अंतरदृष्टिग्राह्य है सो क्रिया मूढजीव न जाने । अन्तरदृष्टिके अभावसौं अन्तर । क्रिया दृष्टिगोचर आवै नाही, तातै मिथ्यादृष्टी जीव मोक्षमार्ग साधिवेको असमर्थ ।
अब सम्यकदृष्टीको विचार सुनौसम्यग्दृष्टी कहा सो सुनो-संशय विमोह विभ्रम ए तीन भाव जामैं नाहीं सो सम्यग्दृष्टी । संशय विमोह विभ्रम कहा। ताको स्वरूप दृष्टान्तकरि दिखायतु है सो सुनो-जैसें च्यार है। 1 पुरुष काहु एकस्थानकविष ठाढ़े । तिन्ह चारिईके आगे एक है सीपको खंड किनही और पुरुषनै आनि दिखायो । प्रत्येक प्रत्येकतें प्रश्न कीनी कि यह कहा है सीप है के रूपौ है. प्रथमही एक पुरुष संशैवालो बोल्यो-कछु सुध नाहीन परत, किधौ सीप . है किधौ रूपो है मोरी दिष्टिविषै याकौ निरधार होत नाहिन । मी दूजो पुरुष विमोहवालो बोल्यो कि-कछू मोहि यह सुधि । नाही कि तुम सीप कौनसौं कहतु है रूपी कौनसौं कहतु है । मेरी दृष्टिविषै कछु आवतु नाही तात हम नाहिन जानत कि
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