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जैनग्रन्थरलाकरे ९१ तरित हुआ, परंतु थोड़े दिन जीकर ही चल वसा । फिर संवत् ८५ में दूसरा पुत्र हुआ, जो दो वर्ष जीकर उसी पथका पथिक बन गया ! संवत् ८७ में तीसरा पुत्र और ८९ में एक पुत्री इस प्रकार दो संतान हुए । यह पुत्री भी थोड़े दिनकी होकर मर गई। पुत्र दिन । दूने रात चौगुने, के क्रमसे बढ़ने लगा । कविवरका शून्यगृह आनन्दकारी कलरवयुक्त हो गया । सूक्तिमुक्तावली, अध्यात्मवत्तीसी, पैडी, फाग, धमाल, सिन्धुचतुर्दशी, फुटकर कवित्त, शिवअपचीसी, भावना, सहस्रनाम, कर्मछचीसी, अष्टकगीत, बचनिका
आदि कविताओंका निर्माण मी इसी ७-८ वर्षके बीच हुआ। यद्यपि कविता निर्माणके समय वे केवल शुद्धरसका आखादन करते थे, और वह एकान्त होनेसे जिनागमके अनुकूल नहीं था,,
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सम्हाल नहीं सके, और शिकार छोडके दौलतखाने में आ गये। थोड़ी देरमें उस प्यादेवी असहाया माता रोती पीटती बादशाहके पास आईतव उन्होंने बहुत सा नकद रुपया देकर उस बुढ़ियाको धोडीबहुत तसही की, परन्तु खतः उनके चित्तकी तसल्ली नहीं हुई । उनको दशा बुढ़ियाले भी विचित्र हो गई । मानो यमराजने इस कौनुक्के मिपसे उन्हें दर्शन दे दिया था।
वादशाह इसी दशामें वीरमकल्लेसे थेने और थेनेसे राजौरको गये। फिर वहांसे सदाकी नाई पहर दिन रहे सूत्र किया । मार्गमें प्याला मांगा, पर ज्यों ही मुंहसे लगाया, छूटकर उलटा आ पड़ा।
दौलतखाने में पहुंचने तक यही दशा रही । वडी काटनताने रात निकली। ३ प्रातःकाल कई स्वास वढी सदतीसे आये और हर दिन बढके अनु. मान २८ सफर सन १०३७ (कार्तिक वदी ३० संवत् १६८४) को ६० वर्षको उमरमें हिंदुस्थानके एक शक्तिशाली सम्बादका प्राण निकल गया । सब लोग देखते ही रह गये"।
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