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Yastatistatutiotatatatatatatatatiststatistatitish ११३२ जैनग्रन्थरलाकरे ॐ अधोदृष्टि मारग अनुसरै । प्राशुक मूमि निरख पग धेरै ॥
सदय हृदय साधै शिव पंथ । सो तपीश निरभय निम्रन्थ ॥ ९ ॥ निरभिमान निरवद्य अदीन । कोमल मधुर दोष दुख हीन ऐसे सुवचन कहै खभाव । सो ऋपिराज नमहुं घरि भाव १० उत्तम कुल श्रावक संचार । तासु गेह प्राशुक आहार ॥ मुंजै दोष छियालिस टाल । सो मुनि वंदौं सुरति संभाला११॥ । उचितवस्तु निजहित परहेत । तथा धर्म उपकरण अचेत ॥ निरख जतनसों गहै जु कोय । सो मुनि नमहुं जोर कर दोय १२ ।
रोगविकृति पूरव आदान । नवदुवार मल अंग उठान | । डारै प्राशुक्र भूमि निहार । सो मुनि नमहुं भगति उरधार १३ कोमल कर्कश हरुव सभार । रुक्ष सचिक्कण तपत तुसार॥ इनको परसन दुख सुखलहें । सो मुनिराज जिनेश्वर कहें॥१४॥
आमल कटुक कषायल मिष्ट | तिक्त क्षार रस इष्ट अनिष्ट ॥ में इनहिं खाद रति अरति नबेव । सो ऋषिराज नमहि तिहँ देव१५ * शुभ सुगंध नाना परकार । दुखदायक दुर्गंध अपार ॥ * नासा विषय गनहिं समतूल। सो मुनि जिनशासनतरुमूल १६
श्यामहरित सित लोहित पीत । वरण विवरण मनोहर भीत ए निरखै तज राग विरोध । सो मुनि करै कर्ममल शोध १७ ॥ शब्द कुशब्दहिं समरस साद। श्रवण सुनत नहिं हरष विषाद ३ युति निंदा दोऊ सम सुणै। सो मुनिराज परम पद मुणै ॥१८॥
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