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बनारसीविलासः rammmmmmmmmmmmmm.... . .
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* सामाइक साधै तिहुं काल । मुकति पंथनी और समान ॥
शत्रुमित्रदोकं सम गण । सो मुनिराज करमरिपु इण ॥ १०॥: अर्हत सिद्ध सरि उचझाय । साधु पंच पद परम महाय ॥ इनके चरणनमें मन लाय । तिन मुनिवरके बन्दों पाया॥२०॥ पावन पंचपरम पद इष्ट । जगतमाहिं जान उतकिष्ट । ठाने गुणयुति बारंबार । सो मुनिराज लह भवपार ।। २१॥ ज्ञान क्रिया गुणयारै चित्त । दोप विलोक कर पाछित ॥ नित प्रतिक्रमणक्रियारसलीन । सो सुसाधु संजम परवीन॥२२॥ * श्रीजिनवचन रचन विसतार । द्वादशांग परमागम मार ॥ निजमति मान करै सम्झाउ। सो मुनिवर बंदई घर माउ२३ । काउसग्गमुद्रा पर नित | शुद्धस्वरूप विचारै चित्त ॥ त्यागै त्रिविविजोग ममकार । सो मुनिराज नमो निधार २४ प्राशुक शिला उचित भूखेत । अचल अंग समभाव सचेत पश्चिमरैन अलप निद्राल । सो योगीश्वर व काल ॥ २५॥ धर्मध्यान जुत परम विचित्र । अन्तर वाहिज सहज पवित्र ।। न्हान विलेपन तनै त्रिकाल । बन्दों सो मुनि दीनदयालारमा लोकलाजविगलित भयहीन । विषयवासनारहित नदीन॥ नगन दिगम्बर मुद्राथार । सो मुनिग़ज जगन मुलकातारा सधन केश गर्भित मलकीच । जस असंख्य उतपति तमुवीचा कच हुँचै यह कारण जान । सो मुनि नमहुं जोरजुगपान२८ ।
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१समीचीन ध्यान.
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