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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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वस्तुलन्द । कलह मंडन मंडन करन उद्वेग । यशखंडन हित हरन, दुःखविलापसंतापसाधन ॥
दुरवैन समुच्चरन, धरम पुण्य मारग विराधन । विनय दमन दुरगति गमन, कुमति रमन गुणलोप।
ये सव लक्षण जान मुनि, तजहि ततक्षण कोप ॥ १७ ॥ यो धर्म दहति द्रुमं दच इयोन्मनाति नीति लता
दन्तीवेन्दुकलां विधुतुद इव क्लिभाति कीर्ति नृणाम् ।। स्वाथै वायुरिवाम्बुदं विघटयत्युल्लासयत्यापदं तृष्णां धर्म इवोचितः कृतकृपालोपः स कोपः कथम् ॥
पदपद् । कोप परम धन दहै, अग्नि जिम विरख बिनासहि । कोप मुजस आवरहि, राहु जिम चंद गरासहि ॥ कोप नीति दलमलहि, नाग जिम लता विहंडहि । कोप काज सब हरहि, पवन जिम जलधर खंडहि ॥ संचरत कोप दुख ऊपजे, वडै नपा जिम धूपमहँ । करुणा विलोप गुण गोप जुत, कोप निषेध मंहत कह ।। ४८ ॥
मानाधिकार.
मन्दाक्रान्ता। यसादाविर्भवति विततिर्दुस्तरापन्नदीनां ___ यस्मिन्शिष्टाभिरुचितगुणग्रामनामापि नास्ति ।
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