________________
६८
कवियरवनारसीदासः ।
p.keketak-keterki.krtetitutiot-tatrketrintukatrkutekrart-rankrkekatrktet-tek.xnksket-kut-tter
एकत्र रहकर आमोद प्रमोदमें सुखम कालयापन करत थे । एक दिन तीनों मित्र एक विचार होकर कोल (अलीगढ़) की यात्राको । गये । यहाँ संसारकी प्रबल-तृष्णाकरशीभूत होकर भगात्से प्रार्थी हुए* * * * * * | हमको ना! लच्छमी दहा लछमी जय देहो तुम तात । तय फिर करहिं तुम्हारी जाता
हाय ! यह भी ऐसी ही यस्तु है। यह भगवतसे संसाररुपी मार्थनाके बदले संसारयटिकी प्रार्थना कराती है और किये हुए शुभफर-प्रदायक-पुण्यकर्मरूप यूक्षको इस याचना और निदानके मी कुबरसे काट डालती है । आज भी न जाने स्तिने लोग सके कारण देवी देवताओं को मना रहे होंगे परयही प्रार्थनाशक हमारे तीनों मित्र घरको लौट आये, कोटकी यात्रा ममाप्त हुई।
फाल्गुणमें बालचन्दका विवाह था । रातको तयारी हुई। मित्रने बनारसीदासजीसे साथ चटनेको अतिशय आनह किया तब अन्तव्य मोती आदि वेचले ३२) रुपया पासमें किये और अगतमें शामिल हो गये, नरोचमदासको भी साथ नाना पटा । घरातमें सब * रुपया खर्च हो गये। लौटके आगरे आये और खराबादी कपडेको
शारके फरोख्त कर दिया, परन्तु हिसाम किया तो मूल और व्याज है देके ४० घाटे रहे ! अदृष्टको कौन जानता है चापारकार्य निष हो चुकनेपर घरको जानेका निश्चय कर लिया। परन्तु निरपर्य नरोधमदासजीने कहा
कहै नरोत्तमदास तब, रहौ हमारे गेह।।
माईलों क्या मित्रता कपटीसों क्या नेह ? ४०६ १जात्रा (यात्रा)।
statrentGE-IATrantetntrtit-irtant-ta.TAT-TATATAt-trTETrtetntitatrtantntruments