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जैनग्रन्थरत्नाकरे इस पर वनारसीदासजीने बहुत कुछ कहा सुना, परन्तु सब व्यर्थ हुआ। मित्रके यहां रहना ही पड़ा।
कुछ दिनके पश्चात् साहुकी आनासे नरोत्तमदास, उनके श्वसुर, और बनारसीदासजी तीनों पटनाकी ओर रवाना हुए । सेवक कोई साथमें नहीं लिया। फीरोजाबादसे शाहजादपुरके लिये गाडीमाडा f किया । शाहजादपुरमें पहुंचते ही माड़ेवालेने अपना रास्ता पकडा 1 सरायमें डेरा डाल दिया ! मार्गकी थकावटके मारे तीनोंको पड़ते ही गहरी निद्राने घेर लिया। एक महरके बाद जब एक मित्रकी निद्राट्टी, उस समय चांदनी का कुछ धुंधला २ उजेला था, इसलिये उसने समझा कि, प्रमात हो गया। अतः दोनों साथियोंको जगाया ।। और उसी वक्त कूच कर दिया। एक कुली किरायेयर करके अपने साथ कर लिया, और उसपर बोझा लाद दिया । परन्तु दो चार कोस चलकर
ही रास्ता मूल गये एक बड़े वीहड़ जंगलमें जा फँसे । कुली रोने लगा से और थोड़ा बहुत चलकर नौ दो ग्यारह हो गया। बडी विपत्ति उपस्थित हुई । उस जंगल में इन दुखियोंके सिवाय चौथा जीव ही न था, यदि सहायता मांगते तो किससे? अतः तीनोंने वोझेके तीन हिस्से करके अपने २ सिरके हवाले किये और लगे रोते गाते रास्ता काटने। आधी रातके पश्चात् आपत्ति के मारे एक चोरोंके आममें पहुंचे। पहिले पहिले चोरोंके चौधरीसे ही सामना हुआ। उसने पूछा कि, तुम कौन हो और कहांसे आये हो ? इस समय सबके होश गायव थे, क्योंकि इस ग्रामकी कथा पहिलेसे सुनी हुई थी। परन्तु बनारसीदासजीकी बुद्धि इस समय काम कर गई, उन्होंने अपना कल्पित नामग्राम बताके एक श्लोक पढा और उच्चस्तरसे चौधरीको आशीर्वाद दिया । लोकयुक्त आशीर्वाद सुनके चौधरी कुछ मृदु हुआ। उसने ब्राह्मण समझके दंडवत किया और वढे आदरके
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