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जैनग्रन्थरत्नाकरे
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इहां कोऊ उटंकना करतु है, कि तुम कह्यो जु ज्ञानको जाणपनौ अरु चारित्रकी विशुद्धता दुहुंस्यों निर्जरा है सु ज्ञानके जाणपनौ सो निर्जरा यह हम मानी । चारित्रकी विशुद्धतासौं निर्जरा कैसें! यह हम नाहीं समुझी-ताको समाधान -
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सुनि भैया ! विशुद्धता थिरतारूप परिणामसों कहिये सो थिरता नथाख्यातको अंश है तातें विशुद्धतामें शुद्धता आई || भी वह उटंकनावारो बोल्यौ -- तुम विशुद्धतासौं निर्जरा कहीं, हम कहतु है कि विशुद्धतासों निर्जरा नाहीं शुभवन्ध हैताकौ सामाधान – कि सुन भैया यह तौ तू सांचो. विशुद्धतासों शुभबन्ध, संक्लेशतासों अशुभबन्ध, यह तो हम भी मानी परन्तु और भेद या है सो सुनि--अशुभपद्धति अधोगतिको परणमन है शुभपद्धति उर्द्धगतिकौ परनमन है तातें अघोरूपसंसार उर्द्धरूप मोक्षस्थान पकरि, शुद्धता बामैं आई मानि मानि या घोखो नाहीं है । विशुद्धता सदा काल मोक्षको मार्ग है परन्तु ग्रन्थभेद विना शुद्धताको जोर चलत नाही ? जैसे कोऊ पुरुष नदी मैं डुबक मारे फिर जब उछलै तब दैवजोगसों ऊपर ता पुरुषकै नौका आय जाय तौ यद्यपि तारू पुरुष
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तथापि कौन भांति निकलै ? वाको जौर चलै नाहिं, बहुतेरा फलचल करै पै कछु बसाइ नांही, तैसें विशुद्धता की भी ऊ र्द्धता जाननी । ता वास्तै गर्भित शुद्धता कही । वह गर्भित शुद्धता ग्रंथिभेद भये मोक्षमार्गको चली । अपने स्वभाव