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बनारसीविलासः २२७ ज्ञान है संकलेश रूप चारित्र है तासमैं बंध है तामैं विशेष इतनौ जु अल्प निर्जरा बहु बंध, ताक् मिथ्यात अवस्थाविषै । केवल बन्ध कह्यो । अल्पकी अपेक्षा. जैसे—काहू पुरुषकों : अनफो थोड़ो टोटौ बहुत सो पुरुष टोटाउ ही कहिए । परंतु ।। बंध निर्जरा विना जीव काहू अवस्थाविषे नाही । दृष्टान्त ऐसोजु विशुद्धताकरि निर्जरा न होती ती एकेन्द्री जीव निगोद अवस्थासौं व्यवहारराशि कौनके बल आवतौ उहां तौ ज्ञान । गुन अजानरूप गहलरूप है अबुद्धरूप है तातें ज्ञानगुनको तौ बल नाहीं । विशुद्धरूप चारित्रके वलकरि जीव व्यवहार राशि चढतु है. जीवद्रव्यविषै कषाइकी मंदता होतु है ताकरि । निर्जरा होतु है। वाही मंदता प्रमान शुद्धता जाननी । अब
और भी विस्तार सुनो- जानपनौ ज्ञानको अरु विशुद्धता चारित्रकी दोऊ मोक्षमार्गानुसारी है तातै दोविषै विशुद्धता माननी । परन्तु विशेष इतनौ जु गर्मित शुद्धता प्रगट शुद्धता नाहीं । इन दुई गुणकी गर्मित शुद्धता जबताई अंथिमेद होय नाहीं तबताई। मोक्षमार्ग न सधै । परन्तु ऊरधताको करहि अवश्य करि ही। ए दोऊ गुणकी गर्मित शुद्धता जब अंथिभेद होइ तब इन दुईकी शिखा फूटै तब दोऊं गुन धारामबाहरूप मोक्षमार्गकौं चलहिं । ज्ञानगुनकी शुद्धताकरि ज्ञान गुण निर्मल होहि । चारित्र गुणकी शुद्धता करि चारित्र गुन निर्मल होइ । वह केवल ज्ञानको अंकूर, वह जथाख्यातचारित्रको अंकूर ।
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