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जैनग्रन्थरलाकरे
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वानारसीदास ऐसे पंचनके परपंच,
रंचक न संच आवै वीर बुद्धि छैलकी । कछु न अनीत न क्यों प्रीति परगुणसेती,
ऐसी रीति विपरीत अध्यातमशैलकी ॥ १३ ॥ लवरूपातीत लागी पुण्यपाप भांति भागी,
सहज स्वभाव मोहसेनाबल भेदकी। ज्ञानकी लबधि पाई आतमलबधि आई,
तेज पुंज कांति जागी उमग अनन्दकी ॥ राहुके विमान बढ़े कला प्रगटत पूर,
होत जगाजोत जैसें पूनमके चंदकी। वानारसीदास ऐसे आठ कर्म भ्रमभेद, __ सकति संभाल देखी राजा चिदानंदकी ॥ १४ ॥ लिखतपढ़त ठाम ठाम लोक लक्षकोटि,
ऐसो पाठ पढ़े कछू ज्ञान हू न बढ़िये । मिथ्यामती पचि पचि शास्त्र के समूह पढ़े,
बंधीकलवाजे पशुचामढोल मढ़िये ॥ दीपक संजोय दीनो चक्षुहीन ताके कर,
विकट पहार वा कबहूं न चढ़िये । बानारसीदास सो तो ज्ञान के प्रकाश भये, लिख्यो कहा पढ़े कछू लख्यो है सो पढ़िये ॥१५॥
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