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वनारसीविलासः २४७ थिर थान थयो शुमवेरा । ध्यान धरै विनती करै, वानारसि बंदा तेरा, चिन्तामन० ॥ ४ ॥
इति अध्यातमपदपक्ति।
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अथ परमारथहिंडोलना लिख्यते। सहज हिंडना हरख हिडोलना, झुलत चेतनराव । जहाँ धर्म कर्म सँजोग उपजत, रस स्वभाव विभाव ॥ टेक ॥ * जहँ सुमनरूप अनूप मंदिर, सुरुचि भूमि सुरंग।। तहँ ज्ञान दर्शन खंम अविचल, चरन आड अमंग ॥ मरुवा सुगुन परजाय विचरन, मौर विमल विवेक । * व्यवहार निश्चय नय सुदंडी,सुमति पटली एक । सहज० ॥१॥ षट कील जहां पडद्रव्य निर्णय, अभय अंग अडोल । उद्यम उदय मिलि देहिं झोटा, शुभ अशुभ कल्लोल ॥ संवेग संवर निकट सेवक, विरत वीरे देत । आनंदकंद सुछंद साहिब, सुख समाधि समेत, सहजाहिँ ॥ २॥ जहँ खिपक उपशम चमर ढारइ, धर्म ध्यान वजीर । आगम अध्यातम अंगरक्षक, शान्तरस वरवीर ॥ गुनथान विधि दश चार विद्या, शकतिनिधिविस्तार ।। संतोष मित्र खवास धीरज, सुजस खिजमतगार, सहज ॥ ३ ॥ धारना समिता क्षमा करुणा, चारसखि चहुँ ओर । निर्जरा दोऊ चतुरदासी, करहिं खिजमत जोर ॥
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