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६७२ कविचरवनारसीदासः। किया ! न जाने बेचारीके प्रण कैसे दुख छूटे होंगे । सतीसानिका । मैं तुम्हारी मक्किका कुछ भी बदला न दे सका, क्षमा करना । इस प्रकारके उथल पुथल विचारोंमें मग्न बनारसीको नरोसमदासने नाना उपदेशोंसे सचेत किया और चिट्ठी पूरी पहनेको कहा।। ॐ तत्र धैर्यावलम्बन करके बनारसी आगे पढने लगे, यह लिखा था। "तुम्हारी सारी अर्थात् बडूकी छोटी बहिन कुंआरी है । तुम्हारी । ससुरालसे एक ब्राह्मण उसकी सगाईकी बातचीत लेके आया था, सो मैंने तुमसे बिना पूछे ही शुभमुहूर्त शुभदिनमें सगाई पक्की करती है। है। भरोसा है कि, तुम मेरी इस कृतिसे अप्रसन्न नहीं होओग इन द्विल्पक समाचारोंको पढकर कविवरने कहाएकवार ये दोऊ कथा । संडासी लुहारकी यथा। छिनमें अगिनि छिनक जलपात! त्या यह हर्षशोककीवात ॥
अपने गृहसंसारके इस प्रकार अचानक परिवर्तनसे किसको है शोक-वैराग्य नहीं होता है सबको होता है और अधिक होता है। परन्तु खेद है कि, मोहमाया-परिवेष्टित चित्तमें यह स्मशान-वैराग्य चिरकाल तक नहीं रहना । जगत्के बावकार्य नियमानुसार चलते हैं। न ही रहते हैं, किसीके मरने वा जन्मठेने से उनमें अन्तर नहीं आता है से बनारसीदासजीकी मी यही दशा हुई । थोडे दिनों तक उनका चित है।
शोकाकुल रहा, परन्तु पीछे व्यापारादि कायोंमें लिप्त होके वे सन । । मूल गये । सव ही मूल जाते हैं।
इन दिनों दोनो भित्रीने छह सात महीने व्यापारमें बढी मशवत उठाई । आवश्यकतानुसार कमी जौनपुर और कमी बनारसमें रहे, परन्तु निरन्तर साथमै रहे । उस समय जौनपुरका नव्याव सु चीनीकिठीचखां था, यह बडा बुद्धिवान, पराक्रमी तथा दानी
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