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जैनग्रन्थरताकरे
३ भक्तिका अतिशय उद्वार हुआ। अतः दोनों मित्रोंने सदाचारको अनेक प्रतिज्ञाय की
अदिल्ल। सांझ समय दुविहार, प्रात नवकार सहि । एक अधेली पुण्य, निरन्तर नेम गहि । नौकरवाली एक, जाप नित कीजिये। होप लगै परमात, तो धीव न लीजिये ॥ ४३७॥
दोहा।
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मारग घरत यथा शकति, सब चौदस उपवास साखी कीन्हें पाजिन, राखी हरी पचास ॥ दोय विवाह सु सुरति है, आगे करनी और।
परदारा संगम तन्यो, दुई मित्र इक दौर ॥४३९॥ भगवत्की पूजन करके दोनों मित्र घर आये । भोजनादि करके । हंसी खुशीकी बातें कर रहे थे, इतनेमें पिताकी चिट्ठी मिली। उसमें अत्यन्त दुःखप्रद समाचार थे। " तुम्हारे तीसरे पुत्रका जन्म हुआ, परन्तु १५ दिनके पीछे ही वह चल बसा, साथमें अपनी माताको मी लेता गया! 7 वस इससे आगे और नहीं पढ़ा गया। शोकसे छाती फटने लगी, आंखोसे आंसुओंकी धारा खर २ बहने । लगी। अपनी सुयोग्य सहधर्मिणीके अलौकिक गुणों और भक्तिभावों को स्मरण करकर उनके हृदयकी क्या दश थी, इसका अनुमान हम लोग नहीं कर सके। "हाय ! वेचारीसे अन्तसमय भी न मिल सके। एकवार उसके पिपासित नेत्रोंको मेरे ये लालायित नेत्र मी न देख सके। मैंने बड़ा मारी अपराध किया, जो उसकी दुःखावस्था में साहाय्य न