________________
x.ints.k.kot.ttt.ttitutn
kutttitutekuttituttitutikistant.ticketsketituttituttitutiktikattt.ttttt..
1 ७६ कविवरवनारसीदासः । * "विधिना केन सृष्टं मित्रमित्यक्षरद्वयम्" । एक दिन अपने / मिबके गुणोंका मनन करते हुए बनारसीदासजीने निलिखित कवित्त बनाया था। इसे वे निरन्तर पढा करते थे
नवपद् ध्यान गुनगान भगवंतजीको, ____ करत सुजान दिन शान जगि मानिये ।
रोम रोम अभिराम धर्मलीन आठौं जाम, __रूप-धन-धाम काम मूरति यखानिये ॥ तनको न अभिमान सात खेत देत दान,
महिमान जाके जसको वितान तानिये । महिमानिधान प्रान प्रीतम 'बनारसी' को,
चहुपद् आदि अच्छरन नाम जानिये ॥ ४४८ ॥ नरोत्तमदास संवत् १६७३ के वैशाखमें साझेका लेखा करके साहुकी आज्ञानुसार आगरे चले गये । वनारसीदास नहीं जा सका। क्योंकि इस समय उनके पिता खरगसेनजीको बीमारी लगने लगी थी । पुत्रने पिताकी जी जानसे सेवा की, नाना औषधियोका सेवन कराया, परन्तु फल कुछ भी नहीं हुआ। मौतका ॐ परवाना आ चुका था, अतः विलम्ब नहीं हो सका । ज्येष्ठकृष्णा पंचमीकी कालरात्रिमें खरगसेनजीका प्राणपखेरु शरीर पंजरसे देखतेही देखते उड़ गया । पुत्र अतिशय शोकाकुल हुआ । पूज्य पिताके पूज्य गुणस्मरण करके हाय पिता! हाय पिता! कहनेके सिवाय वह और कुछ न कर सकाकियो शोक पानारसी, दियो नैन भर रोय । हियो कठिन कीन्हों सदा, जियो न जगमें कोय ॥४९५४
et.titut.tituttitutituttituttituttitutkixit