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२३६ बैनग्रन्थरत्नाकरे । जैसें वैद्य विधा लहै, गुण दोप विचारै।
तैसें पंडित पिंडकी, रचना निरवारै, ऐसे० ॥ ३ ॥ * पिंडस्वरूप अचेत है, प्रभुरूप न कोई।
जानै मानै रमि रहै, घट व्यापक सोई, ऐसें ॥ ४ ॥ चेतन लच्छन है धनी, जड़ लच्छन काया।
चंचल लच्छन चित्त है, प्रम लच्छन माया, ऐसें ॥५॥ 2 लच्छन भेद विलेच्छको, सु विलच्छन वेदै। ना सत्तसरूप हिये धेरै, भ्रमरूप उछदै, ऐसें ॥६॥ ज्यों रजसोथै न्यारिया, धन सौ मनकी लै।
त्यो मुनिकर्म विपाकमें, अपने रस झीलै, ऐसे० ॥ ७ ॥ आप लखै जब आपको, दुविधापद मेटै। सेवक साहिव एक है, तब को क्रिहिं भेटै! ऐसें ॥ ८ ॥
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रोग आसावरी। तू आतम गुन जानि रे जानि,
साधु वचन मनि आनि रे आनि, तू आतम० ॥१॥ भरत चक्रपति पटखंड साधि,
भावना भावति लही समाधि, तू आतम० ॥२॥ प्रसनचंद्ररिषि भयो सरोष, __ मन फेरत फिर पायो मोप, तू आतम० ॥ ३॥
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११५ मात्राकी चौपाई।