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बनारसीविलासः
२३७
रावन समकित भयो उदोत,
तब बांध्यो तीर्थकर गोत, तू आतम० ॥ ४ ॥ सुकल ध्यान धरि गयो सुकुमाल,
पहुँच्यो पंचमगति तिहँ काल, तू आतम० ॥ ५॥ दिढ प्रहारकरि हिंसाचार,
गये मुकति निजगुण अवधार, तू आतम० देखहु परतछ मुंगी ध्यान, ____ करत कीट भयो ताहि समान, तू आतम० ॥ ७ ॥
कहत 'वनारसि वारंवार, ___ और न तोहि छुडावनहार, तू आतम० ॥ ८ ॥
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राग आसावरी। । सेरेमन! कर सदा सन्तोष,
जातें मिटत सब दुखदोष, रे मन० ॥ १ ॥ अबढत परिगृह मोह वाढत, अधिक तृषना होति । बहुत इंधन जरत जैसें, अगनि ऊंची जोति, रे मन ॥ २ ॥ लोभ लालच मूढजनसो, कहत कंचन दान । फिरत आरत नहिं विचारत, घरम धनकी हान, रे मन० ॥३॥ नारकिनके पाइ सेवत, सकुच मानत संक। ज्ञानकरि बूझै 'वनारसि' को नृपति को रंक, रे मन० ॥४॥