________________
kut.xxx.t.k.krit.kett.tt.ttattitil
attadattatre
itikatntatutekat.k.kot.ketaket
बनारसीविलासः ११३ चौथी प्रकृति शरीर विचार । औदारिक वैक्रियक अहार ॥
जस कार्माण मिल पंच । औदारिफ मानुप तिरजच ॥ ५ ॥ । वैक्रिय देव नारकी धरै । मुनि तपबल आहारक करे ॥ तैजस कार्माण तन दोय । इनको सदा घर सबकोय ॥ ५५॥ जैसी उदय तथा तिन गही । चौथी पिंड प्रकृति यह कही। अब बंधन संघातन दोय । प्रकृति पंचमी छठवीं सोय ॥५६॥ बंधन उदय काय बंधान । संघातनसों दिढ संधान ॥ दुहुँकी दश्न शाखा द्वय खंध | जथाजोग काया संबंध ।। ५७॥ अब सातमी प्रकृति परसंग । कहाँ तीन तन अंग उपंग ॥ औदारिक वैक्रियक अहार । अंग उपंग तीन तनधार ।। ५८॥
दोहा। सिर नितंब उर पीट करि, जुगल जुगल पद टेक।। शु आठ अंग ये तनविषै, और उमंग अनेक ॥ ५९॥
तैजस कार्माण तन दोय । इनके अंग उपंग न होय ॥ ॐ कहहुं आठमी प्रकृति विचार । षट् संस्थान नए आकार ६०
जो सर्वंग चारु परधान । सो है समचतुरन संठान ।। ऊपर थूल अधोगत छाम । सो निगोधपरिमंडल नाम ॥६॥ हेट थूल ऊपर कृश होय । सातिक नाम कहावें सोय ॥ कूवर सहित वक्र वपु जानु । कुवज अकार नाम है ना।२॥ लघुरूपी लघु अंग विधान ! सो कहिये वामन संटान ॥ जो सर्वग असुंदर मुंड । सो संठान कहावै हुंद ।। ६३ ॥ है
attentint
a
Htt-ke-krt.ket.
t
ara