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११४ जैनग्रन्थरनाकरे कही आठमीप्रकृति छभेद । अब नौमी संहनन निवेद ॥ है संहनन हाड़को नाम । सो पविधि श्री तन धाम ||२|| वन कील कीलित संधान । अपरि वन्नपट्ट बंधान ॥
अंतर हाड बज्रमय वान । सो है वन्नवृपमनाराच ॥ ३५ ॥ भी जहँ सब हाइ बनमय जोय । वनमेग्न सो अविचल होय ॥ 5. ऊपर वेढरूप सामान । नाम यज्रनाराच बखान ॥६६॥
वन समान होहिं जहँ हाड | ऊपर बजरहित पट आड || वनरहित कीलीसों विद्ध । सो नाराच नाम परसिद्ध ॥६॥ ॐ जाके हाड़ बज्रमय नाहिं । अर्द्धवेध कीली नसमाहि ॥ 7 ऊपर वेठबंधन नहिं होय । अर्द्धनराच कहावै सोय ॥ ६८॥
जहां न होय वज्रमय हाइ । नहिं पटबंधन कीली गाड ॥ 1 फीली विन दिढ बंधन होय ! नाम कीलिका कहिये सोय६९
जहां हाइसों हाड़ न वंधै । अमिल परस्पर संधि न संधै ॥ ऊपर नसाजाल अरु चाम । सो सेवट संहनन नाम || ७० ये संहनन छविधि वरणई । नवमी प्रकृति समापति भई ॥ दशमी प्रकृति गमन आकाश । ताके दोय भेद परकाश ७१
दोहा। शुभविहाय गतिके उदय, भली चाल जिय धार । अशुभविहाय उदोतसों, ठानै अशुभ विहार ।। ७२ ॥
परिछन्द । अब कहूं ग्यारमी प्रकृतिसंच । जो वरणभेद परकार पंच ॥ । सित अरुणपीत दुति हरित श्याम । ये वर्ण प्रकृतिके पंच नाम ७३
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