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९२ जैनग्रन्थरत्नाकरे
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__अरघ स्वर्ग अघो पताल, नरलोक मध्यमुव ।
दीप असंख्य उदधि, असंख मंडलाकार ध्रुव ॥ तिस मध्य अढ़ाई दीपलग, पंचमेरु सागर जुगम । यह मनुजक्षेत्र परिमाण छिति, सुरविद्याधरको सुगम ॥ ७॥
मनहरण । सोलह सुरंग नवग्रीव नव नवोत्तर, ___पंच पंचानुत्तर ऊपर सिद्धशिला है। ता ऊपर सिद्धक्षेत्र तहां हैं अनन्तसिद्ध,
एकमें अनेक कोऊ काहूसों न मिला है। अधोलोक पातालकी रचना अनेकविधि,
नीचे सात नरकनिवास बहु विला है। इत्यादि जगतथिति कही दूजेवेद माहिं, सोई जीव मानें जिन मिथ्यात उगिला है ॥ ८॥
तृतीयवेद यथा:मिथ्याकरतूति नाखी सासादन रीति भाखी,
मिश्रगुणथानककी राखी मिश्र करनी । सम्यकवचन सार कह्यो नानापरकार,
श्रावकआचार गुन एकादश घरनी ।। परमादीमुनिकी क्रिया कहीं अनेकरूप,
भारी मुनिराजकी क्रिया प्रमादहरनी। चारितकरण त्रिधा श्रेणिधारा दुविधा है,
एक दोषमुखी एक मोखमुखी वरनी ॥ १०॥ लाल
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