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बनारसीविलासः
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सुगति वधूसों प्रीत; पालवेकों आलीसम,
कुगतिके द्वार दृढ; आगलसी देखिये ॥ ऐसी दया कीजै चित; तिहूँलोकप्राणीहित, और करतूत काह; लेखे न लेखिये ॥ २५ ॥
शिखरिणी। यदि पावा तोये तरति तरणिर्यधुदद्यते __ प्रतीच्या सप्ताचियदि भजति शैत्यं कथमपि । यदि मापीठं स्यादुपरि सकलस्यापि जगतः
प्रसूते सत्त्वानां वदपि न वधः कापि सुकृतम् ॥
अमानक छन्द ।।
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जो पश्चिम रवि उगै; तिरै पाषान जल । जो उलटै भुवि लोक होय शीतल अनल ॥ जो मेरू डिगमिग; सिद्धि कहहोय मल । तब हू हिंसा करत; न उपजत पुण्यफल ॥ २६ ॥
मालिनी। स कमलवनमझेर्वासरं मास्वदस्ता
दमृतमुरगवत्रात्साधुवादं विवादात् । रुगपगममजीर्णाज्जीवितं कालकूटादभिलपति वधाद्यः प्राणिनां धर्ममिच्छेत् ॥ २७॥
घनाक्षरी छन्द । अगनिमैं जैसें अरविंद न विलोकियत;
सूर अथवत जैसें बासर न मानिये।
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