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बनारसीविलासः
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जिनधर्म। पुरुष प्रमाण परंपरा, वचन बीज विस्तार । धेरै अर्थकी अगमता, यह आगमकी ढार ॥ ६ ॥
जिनभागम। जहां द्रव्य पर तत्त्व नव, लोकालोक विचार । विवरण कर अनंत नय, सो जिन आगम सार ॥ ७ ॥
वचन।
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कहुं अक्षर मुद्रा धरै, कई अनक्षर धार। मृषा सत्य अनुमय उमय, बचन चार परकार ॥ ८॥
जिनवचन। जाकी दशा निरक्षरी, महिमा अक्षर रूप । स्यादवादजुत सत्यमय, सो जिनवचन अनूप ॥९॥
मत । थापै निज मतकी क्रिया, निन्दै परमतरीति । कुलाचारसों बधि रहै, यह मतकी परतीति ॥ १० ॥
जिनमत ।
अर्हत् देव सुसाधु गुरु, दया धर्म जहँ होय। केवल भाषित रीति जह, कहिये जिनमत सोय ॥ ११॥
इति दशवोल.