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५४ जैनग्रन्थरनाकरे बंधु विरोध करै निशवासर; दंडनकों नरवै छल जोवै। पावक दाहत नीर बहावत, है गओट निशाचर ढोचे ॥ भूतल रक्षित जक्ष हरै करकै दुरव्रत्ति कुसंतति खोवै। ये उतपात उॐ धनके ढिग; दामधनी कहु क्यों सुख सौवै : नीचस्यापि चिरं चनि रचयन्त्यायान्ति नीति
शोरप्यगुणात्मनोऽपि विद्धत्युच्चैर्गुणोत्कीर्तनम् । निवेदन विदन्ति किंचिदकृतज्ञस्यापि सेवाकमे कष्टं किं न मनस्विनोऽपि मनुजाः कुर्वन्ति वित्तार्थिन।
घनाक्षरी। नीच धनवंत ताहि निरख असीस देयः ___ वह न विलोकै यह चरन गहत है । वह अकृतज्ञ नर यह अज्ञताको घर;
वह मद लीन यह दीनता कहत है। वह चित्त कोप ठानै यह वाको प्रभु मानै
वाके कुवचन सब यह पै सहत है। ऐसी गति धारै न विचारै कछु गुण दोष;
अरथाभिलाषी जीव अरथ चहत है ॥ ७५ ॥ लक्ष्मीः सर्पति नीचमर्णवपयः सङ्गादिवाम्भोजिनीसंसर्गादिव कण्टकाकुलपदा न कापि धत्ते पदम् ।
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१.राजा.
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