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जैनग्रन्धरलाकरे
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पुरसे अपने पास बुला लिया, और उनकी आमानुसार खैराबाद जाकर उन्होंने अपना दूसरा विवाह कर लिया । मैराबादसे आकर कविवरके चित्तम यात्रा करनेकी इच्छा हुई, इसलिये वे अपनी माता और नवीन मार्याको साथ लेकर 'अहिछिति पार्श्वनाथ की वंदनाको गये, और वहांसे हस्तिनागपुर आये । वहां पर भगवान् शान्तिनाथ, कुंथुनाथ, और अरःनाथकी भक्तिमाहित पूजन की । पूजनमें एक तात्कालिक षट्पद बनाकर पढ़ा
श्री विसंसेननरेश-, सूरनप-राय सुंदसन ।
ऐस-सिरि-आदेवि, (१)कराह जिस देव प्रसंसन ॥ ३ तासु नंदन सारंग-,छौंग-नन्दवित लंछन । * चालिस-पैतिस-तीस, चीप काया छवि कंचन ।
सुखरास 'बनारसिदास' भनि, निरखत मन आनन्दई।। ॐ हथिनापुर-जपुर-नागपुर, शान्ति-कुन्थु-अर धन्दई ॥
हस्तिनापुरसे दिल्ली, मेरठ, कोल होते हुए बनारसीदासजी । सकुटुम्ब सकुशल आगरा आ गये । संवत् १६७६ में कविवरको द्वितीयमार्यासे एक पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई।७७ में माताका स्वर्गवास हो गया । ७९ में पुत्र तथा भार्या दोनोंने विदा मांग ली । और लोकरीतिके अनुसार संवत् ८० में खैराबादके ककड़ीगोत्रज वेगाशाह
जीकी पुत्रीके साथ विवाह हो गया। जैसे पतझर होके वृक्षों Elपुनः नवीन सुकोमल उत्पलोंकी सृष्टि होती है, उसी प्रकार कविवर
१ विश्वसेन । २ सूरसिंह । ३ मुदर्शन । ४ ऐरादेवी, श्रीकान्तादेवी, सुमित्रादेवी । ५ मृग। ६ मेप। ७ नन्दावर्त । ८ नुम् (माअप विशेष)।
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