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बनारसीविन्यासः -armirrrrrrrrrrr..mamm कूपकथा जैसी कछु कही । सो पल्यापम कहिये नहीं ॥ पयोपम दश कोडाकोड़ि । सब एकत्र क्रीजिये जोदि ॥६॥ एक सागरोपम सो काल ! यह प्रमान जिनमतशी चाल | यह सागरोपमकी कथा । यथा मुनी मैं वरणी तथा ॥ ७० ॥
आठकर्म अठतालसों, प्रकृतिभेद विस्तार । के जानें जिन केवली, के जाने गनपार ॥ १ ॥ अल्पवुद्धि जैसी मुझ पाहि । तसी में वरनी इसमाहि ॥ ।
पंडित गुनी हँसो मत कोय | अल्पमती भाषाकवि होय ॥२॥ 3 कर्मकांड आगम अगम, यथाशक्ति मन आन। भाषा मैं रचना कही, बालयोधमे जान ।। ७३ ॥
कससा-गीताइन्द. यह कर्मप्रकृतिविधान अविचल, नाम ग्रन्थ सुहावना । इसमाहिं गर्मित सुपुतचेतन, गुपत बारह भावना ।। जो जान भेद बखान सरदहि, गद अर्थ विचारसी । सो होय कर्मविनाश निर्मल, शिवसन्ध्य बनारसी ॥ ७ ॥
दोहा। संवत् सत्रहसौ समय, फाल्गुणमान वसन्त । __ऋतु शशिवासर सप्तमी, तब यह नयो सिदंत ।। ७५ ॥
दति धीमप्रतिविमान
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