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m बनारसीविनासः ११५ देवधर्म गुरु हैं निकट, मूह न जाने ठोर। __ बँधी दृष्टि मिश्यातमों, लन्च औरकी और ॥ २२ ॥ भेषधारिको गुरु कहै, पुण्यवन्तको देव । ___ धर्म कहै कुल रीतिको, यह कुफर्मकी टेक ॥ २३ ॥ देव निरंजनको कहै, धर्म वचन परवान।
साधु पुरुषको गुरु कहै, यह मुकर्मको ज्ञान ॥ २४ ॥ जाने माने अनुभवै, कर भक्ति मन लाय। ___ परसंगति आस्रव सधै, कर्मबन्ध अधिकाय ॥ २५ ॥ कर्मबंधतें भ्रम बढे, श्रमत लखे न वाट । __ अंघरूप चेतन रहै, विना सुमति उद्घाट ॥ २६ ॥ सहजमोह जब उपशमै, रु, सुगुरु उपदेश ।
तव विभाव भवथिति धेरै, जग ज्ञान गुण लेगारा ज्ञानलेश सो है मुमति, लखै मुकतिकी लीक ।
निरखै अन्तरदृष्टिसों, देव धर्म गुरु ठीक ॥ २८ ॥ ज्यों सुपरीक्षित जौहरी, काच डाल मणि लय ।। ___ त्यों सुबुद्धि मारग गहै, देव धर्म गुर मय ॥ २९ ॥
दर्शन चारित ज्ञान गुण, देव धर्म गुरु शुद्ध । __ परखै आतम संपदा, तजे सनेह विन्द ॥ ३० ॥ अरचे दर्शन देवता, चरचे चारित धर्म।
दिद परचै गुरुज्ञानसों, य. नुमतिको कर्म ॥ ३ ॥